आलू राजा

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

पर्यावरण सुरक्षा में जन भागीदारी

विश्व पृथ्वी दिवस की शुभकामनाएं!

प्रकृति और पृथ्वी अपना संतुलन बनाती रहती है। जब प्रकृति को यह महसूस होता है कि मनुष्य उसका संतुलन बिगाड़ रहा है तब किसी ना किसी माध्यम से वह संतुलन को बनाने का प्रयत्न करती है मेरी इस बात से आप असहमत हो सकते हैं लेकिन कोरोना के विषय में भी प्राकृतिक संतुलन के सिद्धांत को नकारा नहीं जा सकता।  पिछले कई वर्षों से अंधाधुंध प्रकृति का दोहन और पृथ्वी का शोषण हो रहा है। विकास के नाम पर वृक्षों को काटकर चौड़ी चौड़ी सड़क और ऊंची ऊंची बिल्डिंग बनाई जा रही है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक गुजरात से लेकर असम अरुणाचल प्रदेश तक हर जगह यही हाल है। पृथ्वी को जब यह महसूस होता है,  कि मनुष्य उसका संतुलन बिगड़ रहा है तब वह कभी सुनामी,  केदारनाथ जैसी आपदा ,भूकंप के माध्यम से वह अपना संतुलन बनाने का प्रयत्न करती है ।
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या ने नए आयाम प्राप्त कर लिए ।भोपाल गैस दुर्घटना 1984 चेरनोबिल दुर्घटना 1986 और विश्व के अनेक देशों में अकाल की विभीषिका इस प्रवृत्ति के नमूने के रूप में लिए जा सकते हैं अमेरिकी प्रतिष्ठान यूनियन कार्बाइड के भोपाल स्थित कारखाने में गैस रिसाव के कारण हजारों लोगों की जानें गईं और अनेक लोग विकलांग हो गये।  भूतपूर्व सोवियत संघ के चेर्नोबिल परमाणु बिजली घर में दुर्घटना के कारण उत्पन्न  विषाक्त विकरण न केवल वायुमंडल को व्यापक पैमाने पर प्रदूषित किया व आसपास के क्षेत्रों को भी पर्याप्त मात्रा में विषाक्त कर दिय। चेरनोबिल की दुर्घटना के चलते ऐसा कहा जाता है कि यूरोप के अनेक देशों स्वीडन, फिनलैंड ,इंग्लैंड जर्मनी आदमी रेडियोधर्मिता के प्रसार के कारण खेत बाग एवं चारागाह प्राप्त हो गए परमाणु विकिरण के इस भयानक खतरे को देखते हुए जापान चीन और अमेरिका के 200 परमाणु बंद कर दिया गया।
 हमारा समाज आज भी पर्यावरण के संकट से जूझ रहा है। 'माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्या' कहकर भू संरक्षण का संदेश देने वाले समाज के सामने पर्यावरण सुरक्षा के प्रश्न उठ खड़े हुए हैं? परि तथा आवरण के योग से निस्पंन पर्यावरण का शब्दकोशीय अर्थ होता है- आसपास मानव जंतुओं या पेड़ पौधों की वृद्धि एवं विकास को प्रभावित करने वाली बाह्य दशाएं, कार्यप्रणाली तथा जीवन यापन की दशाएं।प्राचीन काल से ही हमारा समाज पर्यावरण के कल्याण के प्रति जागरूक रहा है। वैदिक युग में हमने वेदों में यह तथ्य दिए कि हम अपनी सृष्टि को अधिक समय तक बनाए रखने के लिए इसका उपयोग करें, न कि उपभोग।
 हमारे पूर्वज जानते थे कि मनुष्य इंद्रियों का दास है तथा आगे आने वाले समय में वह इंद्रिय सुख के लिए सर्वस्व नष्ट करने के लिए तैयार हो सकता है इसलिए उन्होंने संपूर्ण मानव समुदाय के लिए कुछ नियम विचार और सिद्धांत दिए। वे जानते थे कि मानव की अधिनायक वादी सोच के कारण वह सर्वप्रथम पर्यावरण पर आधिपत्य करेगा। पूर्वजों ने प्रत्येक पर्यावरणीय अंग के साथ दैवीय शब्द जोड़ दिया ताकि मनुष्य आध्यात्मिक लाभ की प्राप्ति के लिए ही सही कम से कम पर्यावरण की रक्षा तो करेगा। पीपल ,बरगद, तुलसी ,नीम, वृक्षों को जन सहयोग के माध्यम से संरक्षित करने का प्रयास उसी युग में प्रारंभ हो गया था।फिर जीव जंतुओं को संरक्षित करने का प्रयत्न आध्यात्मिक रूप से किया गया तो शिव के श्रृंगार का साधन सांप ,कृष्ण के श्रंगार में मोर पंख का प्रयोग किया गया। इसी तरह किसी न किसी पशु को किसी न किसी देवता के वाहन बनाकर उसकी रक्षा का आध्यात्मिक प्रयास प्रारंभ हुआ परंतु जो लोग पीपल, बरगद, तुलसी ,सांप ,मोर, गाय में अपने देश के दर्शन करते थे आज वही लोग इन सब देवों के सामूहिक रूप पर्यावरण के दुश्मन कैसे हो गए इन सब के पीछे दृष्टिपात करें तो पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव का पता चलता है। आज पूरी दुनिया पर्यावरण संकट से जूझ रही है।भोगवादी संस्कृति का प्रभाव ऐसा हुआ है स्थित भयानक हो गई है और लोगों ने इसके कारणों को खोजना प्रारंभ किया। 1927 में वैज्ञानिकों ने हरित ग्रह प्रभाव की खोज की लेकिन तब तक पर्यावरण अपना बदला लेना प्रारंभ कर दिया कुछ ऐसी आपदाएं जिससे संपूर्ण विश्व पर्यावरण सुरक्षा में अपनी भागीदारी देने के लिए खड़ा हुआ ।उन घटनाओं में 1972 की स्वीडन की अम्लीय वर्षा, 1984 का भोपाल गैस कांड, 1985 में ओजोन परत में छिद्र, 1986 में चेर्नोबिल काण्ड प्रमुख हैं। इसके अलावा जल ध्वनि, वायु आदि प्रदूषण से पर्यावरण की सुरक्षा करने का प्रश्न संपूर्ण समाज के सामने खड़ा हुआ ।भोग वादी संस्कृति के कारण जनसंख्या विस्फोट मशीनीकरण का अत्यधिक उपयोग तथा तकनीकी के अप्रत्याशित प्रसार ने पर्यावरण को नष्ट करने का प्रयास किया इससे धरती का तापमान बढ़ा और मधुमक्खी गौरैया, तितली आदि छोटे जीव जंतु समाप्ति के कगार पर आ गए।
 इन समस्याओं को सुलझाने के उद्देश्य से जन भागीदारी का प्रारंभ हुआ। भारत में 1927 में वनों को बचाने के लिए भारतीय वन अधिनियम लाया गया। उसके बाद पर्यावरण सुरक्षा पर राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर के अनेक कार्यक्रम शुरू हुए जिनमें 1972 में विश्व पर्यावरण सम्मेलन( स्टॉकहोम), वन्य जीव संरक्षण अधिनियम (भारत),1973 में वृक्षों को बचाने के लिए भारत में चिपको आंदोलन,
1992 में पृथ्वी सम्मेलन, 1995 में राष्ट्रीय पर्यावरण ट्रिब्यूनल एक्ट, 1997 में क्योटो सम्मेलन, 2002 में विश्व पृथ्वी सम्मेलन,और 16 फरवरी 2005 को प्रभावी हुआ क्यूटो प्रोटोकॉल प्रमुख है।

कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रयासों के बाद भी पर्यावरण संकट का ठोस हल न निकलता नहीं दिख रहा है इसके पीछे प्रमुख कारण जनभागीदारी का ना होना है ।किसी भी परिवर्तन में जनभागीदारी का सर्वाधिक महत्व होता है। इन सभी कार्यक्रमों में जन सहयोग द्वारा हम पर्यावरण को सुरक्षित कर सकते हैं तथा इन सब के अलावा व्यक्तिगत रूप से भी जनभागीदारी हो सकती है। इसके कुछ प्रमुख उदाहरण हैं।
जल संरक्षण, ध्वनि नियंत्रण, वन्य जीव संरक्षण, वन संरक्षण पौधारोपण, पशुओं का गोबर तथा अन्य अपशिष्ट के माध्यम से हम पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान दे सकते हैं। हमें अपने जीवन में कम से कम एक वृक्षारोपण कर उसको पल्लवित और पुष्पित अवश्य करना चाहिए ।मानव जाति से इस सृष्टि में सह अस्तित्व की भावना शुरू से ही रही है लेकिन जब इस भावना में अंतर आया तब पर्यावरण संकट छाने लगा इस संकट को दूर करते हुए पशु-पक्षियों जीव जंतुओं सबका सहयोग करने के लिए सह अस्तित्व की भावना से रहना होगा। पर्यावरण सुरक्षा में प्रत्यक्ष जनभागीदारी के सफल क्रियान्वयन के लिए कुछ ग्राम वासियों की वन समिति बनाई जा सकती हैं जो पर्यावरण के लिए कार्यक्रमों को जन जागरण का काम सौंपा जाए। दीवार पर पर्यावरण जागरूकता संबंधी विभिन्न प्रकार के स्लोगन, शादी विवाह के अवसर पर कन्यादान के साथ वृक्ष दान, बच्चे के जन्म के साथ वृक्षारोपण,वृक्ष महोत्सव जैसे कार्यक्रम वन समितियों द्वारा संपन्न कराए जाएं।
अंत में हमें इस विषय को गंभीरता से सोचना होगा कि आज कोरोना जैसी जो भयानक बीमारी इस समाज में व्याप्त हुई है यह केवल लैब से निकली हुई या यूं ही यह बीमारी किसी वायरस से नहीं फैल रही है। कहीं ना कहीं इसके पीछे प्राकृतिक असंतुलन भी है हमें इन सभी बातों को गंभीरता से सोचना पड़ेगा और प्राकृतिक असंतुलन को मिटाने के लिए हमें  'नित्य नूतन, चिर पुरातन' सूक्ति का अनुसरण करना पड़ेगा।

दीपक तिवारी'दिव्य'


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