आलू राजा

बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

स्वतंत्र चिंतन


स्वतंत्र चिंतन

बच्चों को संतति का पिता माना गया है । किसी भी देश एवं समाज का भविष्य उस देश के बच्चों के सार्वभौमिक विकास पर निर्भर करता है। बच्चे न केवल राष्ट्र की धरोहर है बल्कि भविष्य में उनके द्वारा ही देश की सामाजिक ,राजनीतिक ,आर्थिक, व्यवस्था का क्रियान्वयन होगा। बच्चों के उचित सामाजिक- मनोवैज्ञानिक विकास का उत्तरदायित्व केवल परिवार पर ही नहीं वरन समाज के प्रत्येक व्यक्ति पर है इसलिए उनके सर्वांगीण विकास के लिए स्वतंत्र चिंतन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। बच्चे किसी भी राष्ट्र की अमूल्य संपत्ति माने जाते हैं। यही बच्चे देश का भविष्य भी होते हैं ।भारत की कुल जनसंख्या का 42% ,18 वर्ष से कम आयु के बच्चों का है ।

नोबेल पुरस्कार प्राप्त करते समय जब मलाला की खनकती आवाज टेलीविजन और सोशल मीडिया के माध्यम से विश्व के अधिकांश घरों में गूंजी तब  बच्चों के स्वतंत्र चिंतन विषय पर एक गंभीर बहस प्रारंभ करने के अवसर उत्पन्न होने लगे। स्वतंत्र चिंतन ही था जिसने मलाला को आतंकवाद के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा प्रदान की ।भारत जैसे सांस्कृतिक देश में स्वतंत्र चिंतन को प्राचीन काल से ही  बढ़ावा दिया जा रहा है। शुकदेव से लेकर रामकृष्ण आदि गुरु शंकराचार्य ,खुदीराम बोस, प्रफुल्ल चाकी, बंदा बैरागी गुरु गोविंद सिंह के बेटे ,चंद शेखर आजाद का न्यायालय में भाषण, भगत सिंह ,उधम सिंह ,वीर सावरकर आदि ने बचपन में ही अपनी स्वतंत्र सोच विकसित की थी। आज भी हमारे विचारों को पल्लवित करने में इन सब की भूमिका है ।आधुनिक समय में सचिन तेंदुलकर ,साइना नेहवाल, कल्पना चावला, मैरी कॉम,फोगाट बहने जैसे कई उदाहरण हैं, सोचिए यदि इनके  माता-पिता ने इनकी सोच पर अपने विचार थोपे होते तो क्या होता ?


बालकों के संपूर्ण विकास पर ही देश का विकास निर्भर करता है। बालक जब स्वतंत्र चिंतन के माध्यम से स्वयं विकसित होगा तो उसके हृदय में विभाजन कारी विचार उत्पन्न नहीं होगा। व्यक्ति की प्रथम पाठशाला मां और उसका घर होता है। हमें घर में ऐसा वातावरण निर्मित करना चाहिए जिससे बालक स्वतंत्र होकर विचार कर सके। बालकों को बात-बात पर डांटना या अनुपयोगी विचारों को उन पर लागू नहीं करना चाहिए ।समाज अपने आदर्शों ,विचारों, रीति-रिवाजों ,परंपराओं को आने वाली संतति को प्रदान करता हुआ स्वयं को जीवित रखता है। इस मानव समाज ने जब-जब यह अनुभव किया कि उसकी कुछ परंपराएं विचारधाराएं, आदर्श एवं मूल्य पुराने हो गए हैं और समाज के लिए लाभप्रद सिद्ध नहीं हो रहे तब उसने उन्हें त्यागा और उसके स्थान पर नवीन आदर्श एवं विचारधाराओं को अपनाया। मानव समाज ने यह कार्य शिक्षा के माध्यम से किया और अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। शिक्षा संस्कृतिक हस्तांतरण और व्यक्ति विकास का प्रमुख साधन बनी। विद्यालयों का प्रमुख दायित्व है कि वे बच्चों का सर्वांगीण विकास करें ।उनके स्वतंत्र चिंतन के लिए पाठ्य-सहगामी क्रियाओं में बोध कथा वाचन ,लेखन ,समाचार समीक्षा के अलावा भाषण प्रतियोगिता वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया जाना चाहिए ।बच्चों को नाबालिग माना जाता है । सामान्य समाज इन बच्चों के विचारों चिंतन को अधिक महत्व देते हुए बच्चा कहकर चुप रहने के लिए कहता है जबकि अवस्था स्वतंत्र चिंतन के लिए सर्वश्रेष्ठ अवस्था होती है।

मनोवैज्ञानिकों ने विशिष्ट प्रकृति एवं महत्व के कारण जहां बाल्यावस्था को जीवन का अनोखा काल  के नाम से संबोधित किया वहीं किशोरावस्था को जीवन का सबसे कठिन काल माना है।

सामाजिक विकास की दृष्टि से इस आयु में घरेलू वातावरण से तंग आ जाते हैं किंतु समाज सेवा के लिए यह हमेशा अग्रसर रहते हैं अतः समाज के अग्रणी लोगों को युवाओं को समाज के माध्यम से जागरूक करते हुए पुरानी रूढ़ियों ,रीति-रिवाजों से दूर रखते हुए मुक्त चिंतन के अवसर देने चाहिए।

बचपन जीवन का सबसे नाजुक दौर होता है। इस अवस्था में बालक का झुकाव जिस ओर हो जाता है उसी दिशा में जीवन में वह आगे बढ़ता है। वह धार्मिक, देश प्रेमी या देशद्रोही कुछ भी बन सकता है ।इसी अवस्था में संसार के सभी महान पुरुषों ने अपने भावी जीवन का संकल्प लिया है ।स्वतंत्र चिंतन के कारण किशोर स्वयं को दूसरों को और अपने जीवन को भली-भांति समझने का प्रयास करेगा। स्वतंत्र चिंतन से बालकों के मानसिक स्वास्थ्य का अच्छा विकास होगा जिससे उनका शैक्षणिक विकास भी द्रुतगामी होगा।

स्वतंत्र चिंतन के मार्ग में कुछ बाधाएं भी हैं।  स्वतंत्र चिंतन यदि नकारात्मक हो जाए तो गंभीर समस्याएं आ सकती हैं। इस अवस्था में अपराध प्रवृति अपनी पराकाष्ठा पर होती है अतः अत्याधिक और विना किसी निर्देशन के स्वतंत्र चिंतन हानिकारक हो सकता है। किशोर अपने अंदर  संघर्ष का अनुभव करता है जिसके फलस्वरूप वह अपने को कभी-कभी दुविधापूर्ण स्थिति में पाता है। ऐसी स्थितियों में अभिभावकों का और समाज का यह दायित्व है कि वह अपने सहयोग के माध्यम से और अपनी निगरानी में बच्चों की स्वतंत्र चिंतन के अभियान को गति प्रदान करें तो निश्चित ही परिणाम सुखद होंगे।


दीपक तिवारी 'दिव्य'

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