आलू राजा

मंगलवार, 7 जून 2016

सर्व समाज के मसीहा : आंबेडकर

दलितों के नहीं सर्व समाज के मसीहा थे अंबेडकर

पिछले कुछ समय से राष्ट्रवाद और राष्ट्रनायकों के विकेन्द्रीयकरण का दौर प्रारंभ हुआ है।तकनीकि के युग के प्रारंभ होने के बाद और जातिगत राजनीति के उदय के पश्चात् चतुर राजनेताओं द्वारा नायकों का पेटेंट करते हुए इन्हें संकुचित बनाकर केवल एक उस विशेष जाति जिससे वो संबंधित हैं तक सीमित करने का प्रयास किया जा रहा है।
सोशल मीडिया पर उस नायक से संबंधित झूठी तथ्य हीन बातें तथा उस नायक की जाति को बरगलाने का क्रम ज़ोर - शोर से जारी है।ऐसे लोगों की सोच केवल यही है कि समाज को किसी भी तरह एक न होने दिया जाए और समाज को बाँटकर अपना हित साधते रहा जाए।
महानायकों को नायक तक सीमित रखने के क्रम में सबसे ज्वलंत उदाहरण यदि किसी का है तो वो हैं डॉ भीमराव आंबेडकर।आज़ादी के 65 वर्ष व्यतीत होने के बाद भी कुछ विशेष लोगों ने इस महानायक को केवल दलित नायक की छवि में बाँधकर रखा हुआ है।जबकि बाबा साहेब ने दलित ही नहीं सर्व समाज के उत्थान के लिए संघर्ष किया। 
डॉ अंबेडकर का जन्म 1891 में महू ( मध्य प्रदेश ) में हुआ था।इनके पिता का नाम रामजी सकपाल था।अंबेडकर के बचपन का नाम भीम था और सकपाल उपनाम।बाबा साहेब बचपन से ही मेधावी थे।समाज में उस समय जातिवाद हावी था इसलिए भीम राव के एक ब्राह्मण अध्यापक ने अपना अंबेडकर उपनाम भीम सकपाल को दिया ताकि यह होनहार बालक जातिवाद के कारण समाज में पिछड न जाए।इस प्रकार भीम सकपाल से बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर हो गए।
14 भाई बहनों में सबसे छोटे भीम मैट्रिक करने बाले महार जाति के पहले छात्र बने।भीम की अध्ययन में रुचि को देखते हुए इनके एक दूसरे अध्यापक कृष्णाजी केलुस्कर ने भीम को गौतम बुद्ध की जीवनी पढ़ने को दी तथा इन्हें बडौदा नरेश सियाजी राव गायकबाड के पास ले गए।
राजा साहब ने इस होनहार बालक का पूरा सहयोग किया और भीम राव को छात्रवृत्ति मिलने लगी।1912 में बंबई यूनीवर्सिटी से बीए करने बाद कोलम्बिया में उच्च शिक्षा हेतु प्रस्थान किया।अमेरिका में पढ़ाई कर रहे अंबेडकर को लाला लाजपत राय ने राजनीति में आने का आमंत्रण दिया।उस समय डॉ ने उनका आमंत्रण स्वीकार नहीं किया।अपनी पढ़ाई सम्पन्न करने के वाद डॉ आंबेडकर सैक्रेटरी ऑफ़ बडौदा स्टेट बन गए।
समाज की मुख्यधारा से कटे हुए लोगों का नेतृत्व करते हुए अंबेडकर ने समाज को एक नई दिशा दी।उन्होंने लोगों से स्वयं अपना भाग्य विधाता बनने को कहा।
3 मार्च 1933 को मुंबई के बधाई समारोह में आपने कहा था-
"आपके मेरे लिए मानपत्र के लिए धन्यवाद।यह मानपत्र मेरे कार्य और गुणों की श्रेष्ठतम बातों से परिपूर्ण है।इसका अर्थ यह है कि आप अपने जैसे सामान्य व्यक्ति का दैवीकरण कर रहे हैं किसी व्यक्ति को देवता का दर्जा देकर आप अपनी सुरक्षा और हल की जिम्मेदारी एक व्यक्ति के हाथ सौंप देते हैं।परिणाम स्वरूप आप निर्भरता की आदत पालकर अपने कर्तव्यों के प्रति तटस्थ हो जाते हैं।यदि आप ऐसी सोच का शिकार हो जाते हैं तो आपका भाग्य राष्ट्रीय धारा में बह रहे लकड़ी के टुकड़े से बढ़कर और कुछ नहीं होगा।आपके संघर्ष का परिणाम शून्य होकर रह जाएगा।"
बाबा साहेब हिन्दू धर्म की उस समय की कमियों को दूर करना चाहते थे।वे चाहते थे कि पूरा समाज चाहे वो सवर्ण हो या दलित सब मिलकर बिना भेदभाव के साथ रहें ताकि एक संगठित राष्ट्र का निर्माण हो सके।वे धर्म पर पूर्ण विश्वास रखते थे।बाबा साहेब ने कहा था जैसे मनुष्य नश्वर है उसी तरह विचार भी नश्वर हैं।जैसे एक पौधे को पानी की ज़रूरत होती है उसी तरह विचार को प्रचार - प्रसार की ज़रूरत होती है।नहीं तो दोनो मुरझाकर मर जाते हैं।
अंबेडकर धर्म द्वारा दलित और सवर्ण को जोडना चाहते थे । "गौतम बुद्ध और उनका धम्म" में वे लिखते हैं कि - "अकेले व्यक्ति को धर्म की आवश्यकता नहीं होती लेकिन जब दो व्यक्ति जुडते हैं तब परस्पर व्यवहार के लिए धर्म की आवश्यकता होती है।"
इसी प्रकार डॉ अंबेडकर ने उस समय समाज में महिलाओं की स्थिति पर गहन अध्ययन किया।उस काल में महिलाओं की स्थिति बहुत दयनीय थी।बाल विवाह , सती प्रथा,सम्पत्ति में अधिकार न मिलना , पुनर्विवाह न होना, बालिकाओं की शिक्षा पर ध्यान न देना आदि समस्याओं ने महिलाओं को समाज में सबसे दयनीय स्थिति में रखा था।डॉ अंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल के माध्यम से महिलाओं के अधिकारों को कानूनी जामा पहनाने के लिए संघर्ष किया।अंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल के मुख्य पाँच भागों विवाह,विवाह विच्छेद,विरासत, गुज़ारा भत्ता और दत्तक के माध्यम से महिलाओं के मूल अधिकारों के इन पहलुओं को कानूनी मान्यता के लिए समाज व नीति नियन्ताओं के सामने रखा।
बाबा साहेब जिस रूप में यह बिल पारित कराना चाहते थे उस रूप में नहीं हुआ।लेकिन हिन्दू स्त्री-पुरुष विवाह की आयु आदि मुद्दे आंशिक रूप से लागू हुए।और धीरे - धीरे स्वतंत्र कानून इस मुद्दे पर बनने लगे।आज महिलाओं को जो भी संवैधानिक अधिकार मिल रहे हैं उसका प्रारंभ डॉ अंबेडकर ने ही किया था।
राष्ट्र नायक आंबेडकर को समाज में समता स्थापित करने के लिए कई संघर्ष करने पड़े।इन संघर्ष और आंदोलनों का परिणाम कभी-कभी सकारात्मक नहीं रहा।1935 में कालाराम मंदिर आंदोलन में सफलता न मिल पाने के कारण बाबा साहेब ने घोषणा की कि "मैं हिन्दू नाम से जन्मा हूँ लेकिन हिन्दू के नाम से मरूँगा नहीं । " बाबा साहेब की इस घोषणा से पूरा देश स्तब्ध था।तब महात्मा गाँधी ने बाबा साहेब से वार्ता की और आंबेडकर ने गांधी जी को वचन दिया कि मैं हिन्दू धर्म छोड़ूँगा लेकिन उसका कम से कम नुकसान हो इसका ध्यान रखूँगा।14 अक्टूबर 1956 को लगभग 5 लाख अनुयायियों के साथ डॉ आंबेडकर ने बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर गांधी जी को दिए वचन को निभाया।
बाबा साहब दलितों को मुख्यधारा में लाकर सम्पूर्ण समाज को एक साथ मिलाकर एक संगठित राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे।उनका सामाजिक न्याय , सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मूल तत्व ही तो है।आज़ादी के वाद बाबा साहेब द्वारा प्रदत्त आरक्षण की आड लेकर कुटिल लोगों ने समाज को कई भागों में बाँट दिया।डॉ आंबेडकर को दलित नेता के रूप में स्थापित करने का षड़यंत्र जारी है लेकिन हिन्दू कोड बिल और मतांतरण पर दिए गए वचन को पूर्ण करके बाबा साहेब ने ये सिद्ध किया कि वह भारत के श्रेष्ठ राष्ट्रवादी तथा सर्व समाज के मसीहा थे।
अगस्त 2012 में कुछ टीवी चैनलों द्वारा कराए गए ई-मतदान में डॉ आंबेडकर को महात्मा गांधी के वाद  सर्वश्रेष्ठ भारतीय चुना जाना और हमारे देश के सभी नेताओं में सबसे ज्यादा मूर्तियाँ बाबा साहेब की लगना इस बात का प्रमाण हैं कि वह एक महानायक हैं।

दीपक तिवारी