आलू राजा

शनिवार, 24 अक्तूबर 2020

आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी : एक वरदान

आधुनिक सूचना तकनीकि : एक वरदान 


मानव जीवन में संप्रेषण का महत्व हमेशा से ही रहा है ।सभ्यताओं को विकसित करने के लिए प्रभावी संप्रेषण साधनों का प्रयोग महत्वपूर्ण स्थान रखता है। मनुष्य सूचनाओं द्वारा लोगों तक अपने विचारों को पहुंचाता था। यह सूचना के साधन कबूतर या मनुष्य होते थे लेकिन विज्ञान के आविष्कारों ने उन्हें आधुनिक  बनाया और सूचना तकनीकी का आविर्भाव हुआ। सूचना प्रौद्योगिकी एक बेहद विकसित अवधारणा है जिसमें सूचना प्रक्रिया और उसके प्रबंध संबंधी सभी पहलू शामिल हैं। कंप्यूटर, हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर ,इंटरनेट तथा दूरसंचार प्रणालियां, सूचना प्रौद्योगिकी के आधार हैं ।यूनेस्को के अनुसार" सूचना प्रौद्योगिकी के अंतर्गत वैज्ञानिक तकनीकी तथा इंजीनियरिंग विषयों के अतिरिक्त सूचनाओं के आदान-प्रदान एवं प्रसंस्करण में काम आने वाली प्रबंध तकनीक उन का अनुप्रयोग, कंप्यूटर एवं मनुष्य तथा मशीनों से उनका संबंध और इससे संबंधित सामाजिक आर्थिक तथा सांस्कृतिक मुद्दे शामिल हैं।" सूचना प्रौद्योगिकी के कारण डाक सेवा और टेलीफोन सेवा सूचना प्रदान करने के माध्यम बने। इन के माध्यम से मनुष्य जाति ने पहले की अपेक्षा कम समय में अपनी सूचनाओं को अपने सगे संबंधियों, अधिकारियों, अधीनस्थों को पहुंचाना प्रारंभ कर दिया। सूचना प्रौद्योगिकी ने समाज के प्रत्येक क्षेत्र सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि को प्रभावित किया समय की बचत एवं गोपनीयता भंग ना हो इसलिए मानव समुदाय ने आधुनिक सूचना तकनीकी का सहारा लेना प्रारंभ कर दिया ।सूचना प्रौद्योगिकी ने दैनिक कार्य प्रणाली रेलवे, विमानन ,कृषि ,शिक्षा, चिकित्सा, विज्ञान, रेडियो ,टेलीफोन, मौसम पूर्वानुमान क्षेत्र में परिवर्तन कर दिया है। सूचना प्रौद्योगिकी ने प्रशासन, शिक्षा,व्यापार,वाणिज्य,मेडिसन आदि क्षेत्रों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इंफोसिस,आईबीएम,माइक्रोसॉफ्ट, आदि नाम भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी के ध्वजवाहक बने

 1956 में कोलकाता के भारतीय सांख्यिकी संस्थान में स्थापित हुए पहले कंप्यूटर से लेकर आज तक सूचना प्रौद्योगिकी ने भारतीय मानव समुदाय के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को सकारात्मक रूप से प्रभावित किया। रोजगार,शिक्षा ,स्वास्थ्य ,सेवाएं ,मीडिया ,मनोरंजन आदि क्षेत्रों में प्रगति कर सूचना प्रौद्योगिकी एक वरदान के रूप में लोगों के जीवन स्तर को उच्च बनाने के लिए प्रसिद्ध है।

आधुनिक सूचना तकनीक का इतिहास


1956 में पहला डिजिटल कंप्यूटर भारत में आया ।कोलकाता स्थित भारतीय सांख्यिकी संस्थान ने इंग्लैंड से मंगवाए गए HEC- 2M कम्प्यूटर को स्थापित किया। इसके बाद सूचना प्रौद्योगिकी को लगातार विकास होता गया। 1956 में हैदराबाद में कंप्यूटर सोसायटी ऑफ इंडिया की स्थापना ,1976 में शिव नादर द्वारा माइक्रोकोंप बाद में हिंदुस्तान कंप्यूटर लिमिटेड की स्थापना, 1981 में एनआर नारायण मूर्ति द्वारा इंफोसिस नामक डाटा सेंटर की शुरुआत, 1984 में राजीव गांधी द्वारा नई कंप्यूटर नीति की घोषणा, 1985 में बैंकों का कंप्यूटरीकरण से जुड़ी रंगराजन समिति की रिपोर्ट जारी,1990 में भारत का पहला सुपर कंप्यूटर ( CRAYXMP-14 ) की मौसम विभाग में स्थापना, 15 अक्टूबर 1999 को भारत सरकार द्वारा सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय की स्थापना ,नई दूरसंचार नीति 2002 में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम पारित, जनवरी 2004 में पहला किसान कॉल सेंटर स्थापित, 20 सितंबर 2004 को देश का पहला शैक्षणिक उपग्रह एडूसेट अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित किया गया। आज बिना सूचना तकनीकी के व्यक्ति कुछ दिन नहीं रह सकता। सूचना तकनीकी वरदान बनकर मनुष्य जाति के विकास में लगी है। वेदों उपनिषदों एवं पुराणों में वर्णित सूचना प्रौद्योगिकी के तथाकथित काल्पनिक साधनों को आज समाज देख रहा है एवं उनका उपयोग कर रहा है।सूचना तकनीकी निम्न क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन करके मनुष्य के जीवन को सरल एवं सुगम बना रही है।

रोजगार

  सूचना प्रौद्योगिकी यदि वरदान कहा जाए तो उसका सबसे प्रभावी कार्य रहा लोगों को रोजगार देना ।आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी ने रोजगार के नए अवसर प्रदान किए। लगभग प्रत्येक कार्यालय में कंप्यूटर के प्रयोग होने से कई युवाओं ने अपना भविष्य इस क्षेत्र में उज्जवल किया। शिक्षा ,किराना ,यातायात, आदि क्षेत्रों में रोजगार के अवसर प्राप्त हुए हैं ।आईटी उद्योग किसी भी क्षेत्र के इंजीनियरिंग, वकील ,कला, विज्ञान , साहित्य स्नातकों को रोजगार प्रदान करता है। यदि व्यक्ति स्वरोजगार करना चाहता है तो भी आईटी से संबंधित रोजगार आज सबसे अच्छा रोजगार सिद्ध हो रहा है। साइबर कैफे कंप्यूटर प्रशिक्षण केंद्र मोबाइल रिपेयरिंग सेंटर से संबंधित छोटी दुकान आदि के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार उठाया जा सकता है।



सेवाएं

भारत में सेवा क्षेत्र प्रारंभ से  कार्य की दृष्टि से उबाऊ क्षेत्र माना जाता रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी के प्रयोग ने इस क्षेत्र में कई बदलाव किए जिससे आज विभिन्न प्रकार की सेवाएं कम समय में उपभोक्ताओं को प्राप्त हो रही हैं। सूचना प्रौद्योगिकी ने रेलवे रिजर्वेशन को आसान किया है। साथ ही साथ ई-कॉमर्स ,ई बाजार, ई गवर्नेंस ,मोबाइल बैंकिंग ,किसान कॉल सेंटर ,आदि ऐसे उदाहरण हैं जो लोगों के जीवन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर उसे बदल रहे हैं सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से आज हम कहीं भी कभी भी खरीदारी कर सकते हैं। पूर्व में सरकार ने सरकारी सेवाओं ,सरकारी सूचनाओं को सरकारी गतिविधियों की जानकारी आम आदमी तक पहुंचाने हेतु ई प्रशासन परियोजनाओं को शुरू किया था। केरल में भूमि परियोजना,  आंध्र प्रदेश में एपी ऑनलाइन एवं कार्ड परियोजना ,महाराष्ट्र में सरिता एवं तमिलनाडु में स्टार परियोजना ई- प्रशासन के उदाहरण हैं। हिमाचल प्रदेश की लोक मित्र, राजस्थान की ई मित्र ,मध्य प्रदेश की ज्ञानदूत, उत्तर प्रदेश की लोक बाणी, कुछ ऐसी परियोजनाएं हैं जो नागरिकों को जाति प्रमाण पत्र, मृत्यु प्रमाण पत्र ,आय प्रमाण पत्र ,मूल निवास ,राशन कार्ड की सुविधा प्रदान कर रही हैं।

शिक्षा


शिक्षा प्रारंभ से ही सामाजिक परिवर्तन का माध्यम रही है ।आजादी के बाद के कई दशक तक शिक्षा का प्रसार प्रचार ठीक प्रकार न हो सका लेकिन सूचना प्रौद्योगिकी के प्रयोग से शिक्षा का सरलीकरण तथा सर्वसुलभीकरण हो चुका है। ई लाइब्रेरी के माध्यम से छात्र कम समय में अधिक जानकारी प्राप्त कर सकता है ।सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से घर बैठे किसी भी विश्वविद्यालयों से भी डिग्री प्राप्त की जा सकती है ।शैक्षिक तकनीकी का शिक्षा में प्रयोग होने से अध्यापक तथा छात्र दोनों के ज्ञान में भी वृद्धि हुई है। मनोवैज्ञानिकों द्वारा भी यह सिद्ध किया जा चुका है कि तकनीक के द्वारा अधिगम प्रक्रिया अधिक प्रभावी होती है। शिक्षण में ओवरहेड प्रोजेक्टर ,कंप्यूटर, रेडियो ,टेलीविज़न, टेली कॉन्फ्रेंसिंग के प्रयोग ने विद्यार्थियों को अधिक ज्ञानवान बना दिया है, वहीं ई लाइब्रेरी के माध्यम से छात्र और कोई भी पाठक विश्व की किसी भी पुस्तक को कम खर्चा ,कम समय में पढ़ सकते हैं।अनुसंधान में भी सूचना प्रौद्योगिकी का प्रभावी उपयोग हो रहा है।

स्वास्थ्य

सूचना प्रौद्योगिकी का स्वास्थ्य में प्रयोग एक नवीन प्रयोग है ।समय का सदुपयोग करते हुए डॉक्टर एक स्थान पर बैठकर दूसरे स्थान के मरीजों को देख सकते हैं। टेली मेडिसन के माध्यम से डॉक्टर अपने से दूर स्थित मरीज की समस्याओं को जानकर उनका हल कर सकते हैं। रोबोटिक्स एवं संचार की मदद से डॉक्टर दूर बैठे ही शल्य क्रियाओं को संपन्न कर रहे हैं। विश्व में कहीं भी किसी नई दवा का प्रयोग लोगों को घर बैठे इंटरनेट के माध्यम से पता चल जाता है । कोरोना काल में इसका सर्वाधिक सदुपयोग हुआ है ।कई प्रकार के स्वास्थ्य से संबंधित ऐप जिसमें भारत एवं विश्व के सबसे अच्छे अस्पतालों के डॉक्टरों के द्वारा घर बैठे हुए लोगों ने अपनी समस्याओं को हल करवाया है।

मीडिया

लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया आम आदमी के विचारों को संपूर्ण भारत के लोगों तक पहुंचाने का सशक्त माध्यम है तकनीकी के प्रयोग ने इसे अब और सुलभ किया है विभिन्न न्यूज़ चैनलों के माध्यम से कई प्रकार के घोटाले तथा भ्रष्टाचार से संबंधित घटनाएं आज समाज के सामने उजागर हुई हैं ।न्यूज़ चैनल के अलावा सोशल मीडिया भी एक प्रभावशाली परिवर्तन का माध्यम बनकर उभरा है। फेसबुक टि्वटर आदि के माध्यम से आम आदमी कम समय में अधिकाधिक लोगों के पास तक अपनी बात पहुंचा सकता है ।सोशल मीडिया विश्व में घटित होने वाले प्रत्येक जन आंदोलन का सशक्त माध्यम बना चुका है।

मनोरंजन

मनोरंजन मानव जीवन का आवश्यक अंग है। सूचना प्रौद्योगिकी ने मनोरंजन के नए आयाम प्रस्तुत किए हैं । टेलीविजन जिसे पहले बुद्धू बक्सा कहा जाता था आज प्रौद्योगिकी के प्रयोग द्वारा डीटीएच के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति के लिए विभिन्न चैनलों का प्रसारण कर रहा है ।इंटरनेट के माध्यम से भी कई प्रकार के मनोरंजक कार्यक्रमों द्वारा युवा बुजुर्ग महिलाएं अपना मनोरंजन कर सकते हैं ।यूट्यूब पर अपना स्वयं का वीडियो अपलोड कर घर बैठे आप रोजगार भी पा सकते हैं।

सूचना

सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से सूचनाओं का आदान-प्रदान सुलभ हुआ है। मोबाइल से पहले टेलीफोन ने सूचनाओं का आदान प्रदान किया जाता था ।आज मोबाइल द्वारा हम घर बैठे किसी भी व्यक्ति से बात कर सकते हैं। मोबाइल से संदेश भेजकर या प्राप्त करके एक दूसरे का हाल जान सकते हैं। 4जी तकनीक के आ जाने से अब मोबाइल पर ही हम इंटरनेट, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, टेलीविजन आदि का लाभ उठा सकते हैं सूचना प्रौद्योगिकी के आधुनिक प्रयोग में डाक विभाग को भी लाभ पहुंचाया है। अब इंटरनेट के माध्यम से ईमेल द्वारा किसी भी इंटरनेट उपभोक्ता को सूचना भेजी जा सकती हैं। इसी क्रम में फैक्स द्वारा भी विभिन्न प्रकार की सूचनाओं का आदान प्रदान किया जाता है।

अन्य

सूचना तकनीकी के आधुनिकीकरण के परिणाम स्वरूप केंद्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा 21 जनवरी 2004 को किसान कॉल सेंटर की स्थापना की गई इसका मुख्य उद्देश्य कृषि से जुड़ी किसी भी समस्या का हल किसानों को बताना था। आज के युग में आम आदमी की सबसे बड़ी ताकत मतदान है ।कुछ दशक पहले तक मतदान कागज पर मोहर लगाकर होता था। लेकिन तकनीकी  ने इस व्यवस्था को भी बदला।अब चुनाव में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का प्रयोग होता है। आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी के कारण मानव का जीवन सरल सुगम तथा सुंदर बना है।

अंत में

प्रत्येक व्यवस्था में कुछ ना कुछ कमियां अवश्य ही रह जाती हैं। सूचना प्रौद्योगिकी ने एक तरफ जहां हमें सारे जहां में उड़ने की अनुमति दी है। वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग ऐसे हैं जो इसका दुरुपयोग भी करते हैं। बैंकिंग फ्रॉड एवं इंटरनेट पर उपलब्ध चाइल्ड पॉर्नोग्राफी और अश्लील वेबसाइट के माध्यम से सूचना प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग भी हो रहा है। यह कुछ ऐसी समस्याएं हैं यदि इनको लगाम लगा दिया जाए तो सूचना प्रौद्योगिकी हमारे लिए एक ऐसा वरदान है जिससे हम अपने पूरी पृथ्वी को बहुत ही आकर्षक और अद्भुत बनाते हुए संपूर्ण सृष्टि को उन्नत बना सकते हैं।


दीपक दिव्य 


बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

स्वतंत्र चिंतन


स्वतंत्र चिंतन

बच्चों को संतति का पिता माना गया है । किसी भी देश एवं समाज का भविष्य उस देश के बच्चों के सार्वभौमिक विकास पर निर्भर करता है। बच्चे न केवल राष्ट्र की धरोहर है बल्कि भविष्य में उनके द्वारा ही देश की सामाजिक ,राजनीतिक ,आर्थिक, व्यवस्था का क्रियान्वयन होगा। बच्चों के उचित सामाजिक- मनोवैज्ञानिक विकास का उत्तरदायित्व केवल परिवार पर ही नहीं वरन समाज के प्रत्येक व्यक्ति पर है इसलिए उनके सर्वांगीण विकास के लिए स्वतंत्र चिंतन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। बच्चे किसी भी राष्ट्र की अमूल्य संपत्ति माने जाते हैं। यही बच्चे देश का भविष्य भी होते हैं ।भारत की कुल जनसंख्या का 42% ,18 वर्ष से कम आयु के बच्चों का है ।

नोबेल पुरस्कार प्राप्त करते समय जब मलाला की खनकती आवाज टेलीविजन और सोशल मीडिया के माध्यम से विश्व के अधिकांश घरों में गूंजी तब  बच्चों के स्वतंत्र चिंतन विषय पर एक गंभीर बहस प्रारंभ करने के अवसर उत्पन्न होने लगे। स्वतंत्र चिंतन ही था जिसने मलाला को आतंकवाद के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा प्रदान की ।भारत जैसे सांस्कृतिक देश में स्वतंत्र चिंतन को प्राचीन काल से ही  बढ़ावा दिया जा रहा है। शुकदेव से लेकर रामकृष्ण आदि गुरु शंकराचार्य ,खुदीराम बोस, प्रफुल्ल चाकी, बंदा बैरागी गुरु गोविंद सिंह के बेटे ,चंद शेखर आजाद का न्यायालय में भाषण, भगत सिंह ,उधम सिंह ,वीर सावरकर आदि ने बचपन में ही अपनी स्वतंत्र सोच विकसित की थी। आज भी हमारे विचारों को पल्लवित करने में इन सब की भूमिका है ।आधुनिक समय में सचिन तेंदुलकर ,साइना नेहवाल, कल्पना चावला, मैरी कॉम,फोगाट बहने जैसे कई उदाहरण हैं, सोचिए यदि इनके  माता-पिता ने इनकी सोच पर अपने विचार थोपे होते तो क्या होता ?


बालकों के संपूर्ण विकास पर ही देश का विकास निर्भर करता है। बालक जब स्वतंत्र चिंतन के माध्यम से स्वयं विकसित होगा तो उसके हृदय में विभाजन कारी विचार उत्पन्न नहीं होगा। व्यक्ति की प्रथम पाठशाला मां और उसका घर होता है। हमें घर में ऐसा वातावरण निर्मित करना चाहिए जिससे बालक स्वतंत्र होकर विचार कर सके। बालकों को बात-बात पर डांटना या अनुपयोगी विचारों को उन पर लागू नहीं करना चाहिए ।समाज अपने आदर्शों ,विचारों, रीति-रिवाजों ,परंपराओं को आने वाली संतति को प्रदान करता हुआ स्वयं को जीवित रखता है। इस मानव समाज ने जब-जब यह अनुभव किया कि उसकी कुछ परंपराएं विचारधाराएं, आदर्श एवं मूल्य पुराने हो गए हैं और समाज के लिए लाभप्रद सिद्ध नहीं हो रहे तब उसने उन्हें त्यागा और उसके स्थान पर नवीन आदर्श एवं विचारधाराओं को अपनाया। मानव समाज ने यह कार्य शिक्षा के माध्यम से किया और अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। शिक्षा संस्कृतिक हस्तांतरण और व्यक्ति विकास का प्रमुख साधन बनी। विद्यालयों का प्रमुख दायित्व है कि वे बच्चों का सर्वांगीण विकास करें ।उनके स्वतंत्र चिंतन के लिए पाठ्य-सहगामी क्रियाओं में बोध कथा वाचन ,लेखन ,समाचार समीक्षा के अलावा भाषण प्रतियोगिता वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया जाना चाहिए ।बच्चों को नाबालिग माना जाता है । सामान्य समाज इन बच्चों के विचारों चिंतन को अधिक महत्व देते हुए बच्चा कहकर चुप रहने के लिए कहता है जबकि अवस्था स्वतंत्र चिंतन के लिए सर्वश्रेष्ठ अवस्था होती है।

मनोवैज्ञानिकों ने विशिष्ट प्रकृति एवं महत्व के कारण जहां बाल्यावस्था को जीवन का अनोखा काल  के नाम से संबोधित किया वहीं किशोरावस्था को जीवन का सबसे कठिन काल माना है।

सामाजिक विकास की दृष्टि से इस आयु में घरेलू वातावरण से तंग आ जाते हैं किंतु समाज सेवा के लिए यह हमेशा अग्रसर रहते हैं अतः समाज के अग्रणी लोगों को युवाओं को समाज के माध्यम से जागरूक करते हुए पुरानी रूढ़ियों ,रीति-रिवाजों से दूर रखते हुए मुक्त चिंतन के अवसर देने चाहिए।

बचपन जीवन का सबसे नाजुक दौर होता है। इस अवस्था में बालक का झुकाव जिस ओर हो जाता है उसी दिशा में जीवन में वह आगे बढ़ता है। वह धार्मिक, देश प्रेमी या देशद्रोही कुछ भी बन सकता है ।इसी अवस्था में संसार के सभी महान पुरुषों ने अपने भावी जीवन का संकल्प लिया है ।स्वतंत्र चिंतन के कारण किशोर स्वयं को दूसरों को और अपने जीवन को भली-भांति समझने का प्रयास करेगा। स्वतंत्र चिंतन से बालकों के मानसिक स्वास्थ्य का अच्छा विकास होगा जिससे उनका शैक्षणिक विकास भी द्रुतगामी होगा।

स्वतंत्र चिंतन के मार्ग में कुछ बाधाएं भी हैं।  स्वतंत्र चिंतन यदि नकारात्मक हो जाए तो गंभीर समस्याएं आ सकती हैं। इस अवस्था में अपराध प्रवृति अपनी पराकाष्ठा पर होती है अतः अत्याधिक और विना किसी निर्देशन के स्वतंत्र चिंतन हानिकारक हो सकता है। किशोर अपने अंदर  संघर्ष का अनुभव करता है जिसके फलस्वरूप वह अपने को कभी-कभी दुविधापूर्ण स्थिति में पाता है। ऐसी स्थितियों में अभिभावकों का और समाज का यह दायित्व है कि वह अपने सहयोग के माध्यम से और अपनी निगरानी में बच्चों की स्वतंत्र चिंतन के अभियान को गति प्रदान करें तो निश्चित ही परिणाम सुखद होंगे।


दीपक तिवारी 'दिव्य'

सोमवार, 14 सितंबर 2020

हिन्दी : तीसरी मां

हिन्दी : तीसरी माँ 

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को श्रेष्ठता की ओर ले जाने में  तीन माताओं का विशेष योगदान है।पहली जननी;जिसने हमें जन्म दिया।दूसरी मातृभूमि;जिसने हमारा पोषण किया और तीसरी मातृभाषा ;जिसने हमें हमारे विचारों को अभिव्यक्त करने की शक्ति प्रदान की।
हमारी मातृभाषा हिन्दी ने हमे न केवल इस योग्य बनाया कि हम अपनी भावनाएं प्रदर्शित कर सके वल्कि उसने विश्व की सभी भाषाओं का उच्चारण करने की क्षमता भी विकसित की।
हमारे नीति नियंताओं ने 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में हिन्दी को  राजभाषा का दर्जा दिया।बाद में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के अनुरोध पर सरकार ने 1953 से प्रतिवर्ष 14 सितंबर को विश्व हिन्दी दिवस मनाने का निर्णय लिया।
अंग्रेजों की ग़ुलामी से उभरे हुए देश में उस समय अंग्रेजियत का प्रभाव था।इसलिए हिंदी को सभ्य समाज में स्थापित होने में समय लगा किन्तु धीरे धीरे हिन्दी उस समाज मैं भी पैठ बनाने लगी जो समाज हिन्दी बोलने को पिछडेपन का प्रतीक मानता था।समय के साथ हिन्दी ने अपना क्षेत्र व्यापक किया।आज सिनेमा कला संचार पत्रकारिता के क्षेत्र मे हिन्दी पूरी तरह स्थापित है।आज विश्व के क़रीब 130 विश्वविद्यालयों  मे हिन्दी पढ़ाई जाती है।आज दुनियां की तीसरी सबसे बड़ी भाषा के रूप में हिन्दी बोली जा रही है।
हिन्दी भाषा की इस प्रगति के स्थायित्व के लिए 10 जनबरी सन् 1975 को नागपुर में पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित किया गया।समय समय पर हो रहे  हिन्दी सम्मेलन  यह सिद्ध करते है कि हिन्दी पुत्र इस परंपरा को आगे ले जाते रहेंगे।
हिन्दी ने हमें एक ओर जयशंकर प्रसाद,महादेवी वर्मा,गोपालदास नीरज और कुमार विश्वास जैसे लेखक और कवि प्रदान किए वहीं दूसरी ओर लता मंगेशकर किशोर कुमार और अमिताभ बच्चन जैसे महान कलाकारों की आबाज सुनने का अवसर प्रदान किया।अमीन सयानी की आबाज और बीबीसी की हिन्दी सेवा को हम भूल नहीं पाए होंगे।
भूमंडलीकरण के दौर में हिन्दी को अपने अस्तित्व के लिए लड़ना पड़ रहा है।पश्चिमी विचारों के अन्धानुकरण ने भारतीय शहरी युवाओं को हिन्दी के प्रति उदासीन बना दिया है।कभी इन्दिरा जी,अटल जी,और नरेन्द्र मोदी जी द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में दिया गया भाषण भारतीय स्वाभिमान और हिन्दी के मान को बढाता है  तो आज नव पाश्चात्यवादी  युवा हिन्दी बोलना पिछडेपन का प्रतीक समझ रहा है।कटु सत्य यह है कि  तथाकथित आधुनिक लोग  हिन्दी और अंग्रेजी दोनों के स्वरूप को विकृत कर  'हिंग्लिश'रूपी बोलचाल की भाषा विकसित कर रहे है जिससे व्याकरण की समझ समाप्त हो रही है।
सरकारें भी हिन्दी के उत्थान में विशेष रुचि लेती नलीं दिखाई दे रहीं।जहाँ देश का अधिकांश विद्यार्थी हिन्दी में अच्छी समझ रखता है वहाँ अभियंत्रण,प्रबंधन और चिकित्सा की पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी क्यों ?
ऐसे ज्वलंत प्रश्नों के हल तभ संभव हैं जब विश्व हिन्दी दिवस केवल कर्मकाण्ड के रूप में न मानाकर व्यवहारिक जीवन में उतरे।
आइए ! अपनी तीसरी मां को जगत मां बनानें का संकल्प लें।
हिंदी दिवस की अनंत शुभकामनाएँ…
   
          दीपक तिवारी'दिव्य'
           

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

पर्यावरण सुरक्षा में जन भागीदारी

विश्व पृथ्वी दिवस की शुभकामनाएं!

प्रकृति और पृथ्वी अपना संतुलन बनाती रहती है। जब प्रकृति को यह महसूस होता है कि मनुष्य उसका संतुलन बिगाड़ रहा है तब किसी ना किसी माध्यम से वह संतुलन को बनाने का प्रयत्न करती है मेरी इस बात से आप असहमत हो सकते हैं लेकिन कोरोना के विषय में भी प्राकृतिक संतुलन के सिद्धांत को नकारा नहीं जा सकता।  पिछले कई वर्षों से अंधाधुंध प्रकृति का दोहन और पृथ्वी का शोषण हो रहा है। विकास के नाम पर वृक्षों को काटकर चौड़ी चौड़ी सड़क और ऊंची ऊंची बिल्डिंग बनाई जा रही है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक गुजरात से लेकर असम अरुणाचल प्रदेश तक हर जगह यही हाल है। पृथ्वी को जब यह महसूस होता है,  कि मनुष्य उसका संतुलन बिगड़ रहा है तब वह कभी सुनामी,  केदारनाथ जैसी आपदा ,भूकंप के माध्यम से वह अपना संतुलन बनाने का प्रयत्न करती है ।
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या ने नए आयाम प्राप्त कर लिए ।भोपाल गैस दुर्घटना 1984 चेरनोबिल दुर्घटना 1986 और विश्व के अनेक देशों में अकाल की विभीषिका इस प्रवृत्ति के नमूने के रूप में लिए जा सकते हैं अमेरिकी प्रतिष्ठान यूनियन कार्बाइड के भोपाल स्थित कारखाने में गैस रिसाव के कारण हजारों लोगों की जानें गईं और अनेक लोग विकलांग हो गये।  भूतपूर्व सोवियत संघ के चेर्नोबिल परमाणु बिजली घर में दुर्घटना के कारण उत्पन्न  विषाक्त विकरण न केवल वायुमंडल को व्यापक पैमाने पर प्रदूषित किया व आसपास के क्षेत्रों को भी पर्याप्त मात्रा में विषाक्त कर दिय। चेरनोबिल की दुर्घटना के चलते ऐसा कहा जाता है कि यूरोप के अनेक देशों स्वीडन, फिनलैंड ,इंग्लैंड जर्मनी आदमी रेडियोधर्मिता के प्रसार के कारण खेत बाग एवं चारागाह प्राप्त हो गए परमाणु विकिरण के इस भयानक खतरे को देखते हुए जापान चीन और अमेरिका के 200 परमाणु बंद कर दिया गया।
 हमारा समाज आज भी पर्यावरण के संकट से जूझ रहा है। 'माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्या' कहकर भू संरक्षण का संदेश देने वाले समाज के सामने पर्यावरण सुरक्षा के प्रश्न उठ खड़े हुए हैं? परि तथा आवरण के योग से निस्पंन पर्यावरण का शब्दकोशीय अर्थ होता है- आसपास मानव जंतुओं या पेड़ पौधों की वृद्धि एवं विकास को प्रभावित करने वाली बाह्य दशाएं, कार्यप्रणाली तथा जीवन यापन की दशाएं।प्राचीन काल से ही हमारा समाज पर्यावरण के कल्याण के प्रति जागरूक रहा है। वैदिक युग में हमने वेदों में यह तथ्य दिए कि हम अपनी सृष्टि को अधिक समय तक बनाए रखने के लिए इसका उपयोग करें, न कि उपभोग।
 हमारे पूर्वज जानते थे कि मनुष्य इंद्रियों का दास है तथा आगे आने वाले समय में वह इंद्रिय सुख के लिए सर्वस्व नष्ट करने के लिए तैयार हो सकता है इसलिए उन्होंने संपूर्ण मानव समुदाय के लिए कुछ नियम विचार और सिद्धांत दिए। वे जानते थे कि मानव की अधिनायक वादी सोच के कारण वह सर्वप्रथम पर्यावरण पर आधिपत्य करेगा। पूर्वजों ने प्रत्येक पर्यावरणीय अंग के साथ दैवीय शब्द जोड़ दिया ताकि मनुष्य आध्यात्मिक लाभ की प्राप्ति के लिए ही सही कम से कम पर्यावरण की रक्षा तो करेगा। पीपल ,बरगद, तुलसी ,नीम, वृक्षों को जन सहयोग के माध्यम से संरक्षित करने का प्रयास उसी युग में प्रारंभ हो गया था।फिर जीव जंतुओं को संरक्षित करने का प्रयत्न आध्यात्मिक रूप से किया गया तो शिव के श्रृंगार का साधन सांप ,कृष्ण के श्रंगार में मोर पंख का प्रयोग किया गया। इसी तरह किसी न किसी पशु को किसी न किसी देवता के वाहन बनाकर उसकी रक्षा का आध्यात्मिक प्रयास प्रारंभ हुआ परंतु जो लोग पीपल, बरगद, तुलसी ,सांप ,मोर, गाय में अपने देश के दर्शन करते थे आज वही लोग इन सब देवों के सामूहिक रूप पर्यावरण के दुश्मन कैसे हो गए इन सब के पीछे दृष्टिपात करें तो पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव का पता चलता है। आज पूरी दुनिया पर्यावरण संकट से जूझ रही है।भोगवादी संस्कृति का प्रभाव ऐसा हुआ है स्थित भयानक हो गई है और लोगों ने इसके कारणों को खोजना प्रारंभ किया। 1927 में वैज्ञानिकों ने हरित ग्रह प्रभाव की खोज की लेकिन तब तक पर्यावरण अपना बदला लेना प्रारंभ कर दिया कुछ ऐसी आपदाएं जिससे संपूर्ण विश्व पर्यावरण सुरक्षा में अपनी भागीदारी देने के लिए खड़ा हुआ ।उन घटनाओं में 1972 की स्वीडन की अम्लीय वर्षा, 1984 का भोपाल गैस कांड, 1985 में ओजोन परत में छिद्र, 1986 में चेर्नोबिल काण्ड प्रमुख हैं। इसके अलावा जल ध्वनि, वायु आदि प्रदूषण से पर्यावरण की सुरक्षा करने का प्रश्न संपूर्ण समाज के सामने खड़ा हुआ ।भोग वादी संस्कृति के कारण जनसंख्या विस्फोट मशीनीकरण का अत्यधिक उपयोग तथा तकनीकी के अप्रत्याशित प्रसार ने पर्यावरण को नष्ट करने का प्रयास किया इससे धरती का तापमान बढ़ा और मधुमक्खी गौरैया, तितली आदि छोटे जीव जंतु समाप्ति के कगार पर आ गए।
 इन समस्याओं को सुलझाने के उद्देश्य से जन भागीदारी का प्रारंभ हुआ। भारत में 1927 में वनों को बचाने के लिए भारतीय वन अधिनियम लाया गया। उसके बाद पर्यावरण सुरक्षा पर राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर के अनेक कार्यक्रम शुरू हुए जिनमें 1972 में विश्व पर्यावरण सम्मेलन( स्टॉकहोम), वन्य जीव संरक्षण अधिनियम (भारत),1973 में वृक्षों को बचाने के लिए भारत में चिपको आंदोलन,
1992 में पृथ्वी सम्मेलन, 1995 में राष्ट्रीय पर्यावरण ट्रिब्यूनल एक्ट, 1997 में क्योटो सम्मेलन, 2002 में विश्व पृथ्वी सम्मेलन,और 16 फरवरी 2005 को प्रभावी हुआ क्यूटो प्रोटोकॉल प्रमुख है।

कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रयासों के बाद भी पर्यावरण संकट का ठोस हल न निकलता नहीं दिख रहा है इसके पीछे प्रमुख कारण जनभागीदारी का ना होना है ।किसी भी परिवर्तन में जनभागीदारी का सर्वाधिक महत्व होता है। इन सभी कार्यक्रमों में जन सहयोग द्वारा हम पर्यावरण को सुरक्षित कर सकते हैं तथा इन सब के अलावा व्यक्तिगत रूप से भी जनभागीदारी हो सकती है। इसके कुछ प्रमुख उदाहरण हैं।
जल संरक्षण, ध्वनि नियंत्रण, वन्य जीव संरक्षण, वन संरक्षण पौधारोपण, पशुओं का गोबर तथा अन्य अपशिष्ट के माध्यम से हम पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान दे सकते हैं। हमें अपने जीवन में कम से कम एक वृक्षारोपण कर उसको पल्लवित और पुष्पित अवश्य करना चाहिए ।मानव जाति से इस सृष्टि में सह अस्तित्व की भावना शुरू से ही रही है लेकिन जब इस भावना में अंतर आया तब पर्यावरण संकट छाने लगा इस संकट को दूर करते हुए पशु-पक्षियों जीव जंतुओं सबका सहयोग करने के लिए सह अस्तित्व की भावना से रहना होगा। पर्यावरण सुरक्षा में प्रत्यक्ष जनभागीदारी के सफल क्रियान्वयन के लिए कुछ ग्राम वासियों की वन समिति बनाई जा सकती हैं जो पर्यावरण के लिए कार्यक्रमों को जन जागरण का काम सौंपा जाए। दीवार पर पर्यावरण जागरूकता संबंधी विभिन्न प्रकार के स्लोगन, शादी विवाह के अवसर पर कन्यादान के साथ वृक्ष दान, बच्चे के जन्म के साथ वृक्षारोपण,वृक्ष महोत्सव जैसे कार्यक्रम वन समितियों द्वारा संपन्न कराए जाएं।
अंत में हमें इस विषय को गंभीरता से सोचना होगा कि आज कोरोना जैसी जो भयानक बीमारी इस समाज में व्याप्त हुई है यह केवल लैब से निकली हुई या यूं ही यह बीमारी किसी वायरस से नहीं फैल रही है। कहीं ना कहीं इसके पीछे प्राकृतिक असंतुलन भी है हमें इन सभी बातों को गंभीरता से सोचना पड़ेगा और प्राकृतिक असंतुलन को मिटाने के लिए हमें  'नित्य नूतन, चिर पुरातन' सूक्ति का अनुसरण करना पड़ेगा।

दीपक तिवारी'दिव्य'


रविवार, 15 अप्रैल 2018

जल समस्या : संरक्षण ही हल

बिन पानी सब सून
प्रकृति और प्राणी एक दूसरे के पूरक हैं।प्रकृति प्राणियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है और प्राणी प्रकृति को पूज्यनीय मानकर उसको पल्लवित करते हुए त्याग पूर्वक भोग करता रहा है।प्रकृति ने हमे जल के रूप में अपना सर्वश्रेष्ठ उपहार प्रदान किया है।प्रकृति यह जानती थी कि मनुष्यों को जीवन यापन के लिए जल की  अत्यधिक  आवश्यकता है और रहेगी इसलिए उसने पानी के असीम श्रोत बनाए।केवल उसने धरती के नीचे ही नहीं अपितु ऊपर से वर्षा के रूप में जल उपलब्ध कराने की व्यवस्था दी।
लेकिन मनुष्य ने प्रकृति द्वारा प्रदत्त संसाधनों का ऐसा दुरपयोग किया कि आज लातूर और बुन्देलखण्ड का उदाहरण हम सबके सामने है।आज संपूर्ण विश्व में जल की कमी के कारण त्राहि त्राहि है।इसी आने बाले जल संकट को  हमारे  महापुरुषों ने कई सदियों पहले पहचान लिया था और कहा था "रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून" ।
मानसून में देरी , ग्लोबल वार्मिंग , एवं जल के अनावश्यक दोहन के कारण भूजल स्तर में बहुत कमी आ गई है।पानी के कारण झगड़े उत्पन्न हो रहे हैं और उनसे लोगों की मृत्यु हो रही है।निर्गुण भक्ति धारा के कवि संत कबीर ने सदियों पहले कहा था "पानी बिन मीन प्यासी , मोहे सुन आबत हासी।"उस समय ये हँसने का विषय रहा होगा लेकिन आज इस विषय ने व्यक्ति के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर दिया है।पर्यावरण के बचाव में योगदान करने वाली संस्था इंटरगवर्नमेंटल पेनल ऑन क्लाइमेट चैंज के अध्यक्ष एवं नोबेल पुरस्कार से सम्मानित डॉ राजेन्द्र पचौरी ने चेतावनी दी थी कि भारत समेत कई देशों की कृषि पैदावार जलवायु परिवर्तन के कारण बुरी तरह प्रभावित होने की आशंका है।ग्लोबल वार्मिंग के कारण तेजी से पिघलते हिम ग्लेशियर ने भी जल संकट को और बढ़ा दिया है।जिस पानी को लेकर सारी दुनिया सूखती जा रही है वहीं भारत में आम लोग जल संरक्षण के विषय पर गंभीर नहीं हैं।आम जनमानस के साथ सरकार को भी अपने दृष्टिकोंण में बदलाव लाना होगा।
भारत में हालात बहुत चिंताजनक हैं केंद्रीय भूजल बोर्ड के एक अनुमान के अनुसार अगर भूमिगत जल का अंधाधुंध प्रयोग का सिलसिला जारी रहा तो देश के 15 राज्यों में भूमिगत जल के भंडार 2025 तक पूरी तरह खाली हो जाएँगे।वर्षा जल के संग्रह के अभाव , अवै ज्ञानिक तरीकों से पानी का उपयोग तथा वर्षा की असमानता आदि कारणों से देश में प्रतिवर्ष कहीं न कहीं सूखे की स्थिति बनी रहती है।
भूमिगत जल के अवैज्यानिक और अंधाधुंध उपयोग से भी जल संकट गहरा रहा है।तेजी से हो रहे जल दोहन से मानव को केवल जल संकट का ही ख़तरा नहीं है अपितु मानव को शुद्ध पानी मिल जाए ये भी एक चुनौती हो गई है।दुनिया में 50 लाख लोग दूषित जल के कारण पैदा होने बाली बीमारियों से मर जाते हैं।यह संख्या विभिन्न युद्ध में मारे जाने वाले लोगों से 10 गुना अधिक है।प्रतिवर्ष 15 लाख बच्चे जल जनित बीमारियों की चपेट में आकर काल के गाल में समा जाते हैं।आज देश के कई हिस्सों में भूमिगत जल विकलांग बनाने बाले फ्लोराइड की अधिकता के चलते पीने योग्य नहीं रहा।जल जनित बीमारियों से प्रतिवर्ष लाखों लोग मृत्यु के मुँह में समा रहे हैं।इनमें से इधिकांश विकासशील देश के हैं।भारत में प्रतिदिन 16000 मौतें दूषित पेयजल के कारण उत्पन्न हुई बीमारियों से हो रहीं हैं।
हमारे देश में वर्षा के रूप में काफ़ी मात्रा जल प्राप्त हो जाता है लेकिन उसका बड़ा हिस्सा विभिन्न नदियों के जरिए समुद्र में व्यर्थ चला जाता है।आज आवश्यकता है कि वर्षा का जल संरक्षित किया जाए।वर्षा के जल  को हम अपने घर की छत पर या घर के नीचे संरक्षित कर सकते हैं।विश्वभर में प्रत्येक वर्ष 160 क्यूबिक किलोलीटर मात्रा में भूमिगत जल निकाला जाता है और इसकी भरपाई नहीं हो पाती ।पॅछले 50 वर्षों में प्रतिव्यक्ति पानी की उपलब्धता तेजी से घट रही है।जो सन 1951 में 5200 घन लीटर की तुलना में सन 2001 में केवल 1800 घन लीटर ही रह गई और यदि समय रहते ज़रूरी उपाय नहीं किए गए तो 2050 तक पानी की प्रतिव्यक्ति उपलब्धता 1140 घन लीटर ही रह जाएगी।
भूमिगत जल राष्ट्र की सम्पत्ति है तथा इस संपत्ति का उपयोग संयमित और सुनियोजित मात्रा में ही होना चाहिए।आज आवश्यकता है कि महानगरों और कस्वों में वाटर हार्वेस्टिंग का प्रयोग करके मकानों की छतों पर पानी को रोका जाए और उस पानी का सदुपयोग किया जाए।घरेलू कार्यों जैसे नहाने , सब्जी धोने,घर धुलने , कुत्ते तथा पालतू जानवर को  नहलाने , गाड़ी धोने कपड़े धोने आदि में जल का प्रयोग कम से कम मात्रा में करना चाहिए।पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में अपने जीवन को विलासता पूर्ण बनाने के लिए स्वमिंग पुल , वाटर पार्क , पार्क आदि जल दोहन के केंद्र बनते जा रहे हैं।घर पर जो व्यक्ति एक वाल्टी पानी से नहा लेता है वहीं  स्विमिंग पुल वाटर पार्क में हज़ारों लीटर  पानी व्यर्थ करता है।घरों में सवमर्सिवल लगानें को लोग अधिक महत्व दे रहे हैं।सरकार को परिवार के सदस्यों के आधार पर समर का कनैक्शन देना चाहिए।
जब यह जल संकट अत्यधिक बढ़ जाएगा तो सरकारों के इसके निजीकरण पर विचार करना होगा।बोलीविया का जल युद्ध हमें जल संकटों पर गंभीरता से सोचने के लिए प्रेरित करता है।इस धरती पर जीवन जल के ही कारण है इसलिए पानी की एक एक बूंद के महत्व को समझते हुए हमें जल संरक्षण के प्रति जागरूक होकर पानी के बचाव के लिए उचित प्रयास करने होंगे। 

दीपक तिवारी 'दिव्य'

मंगलवार, 7 जून 2016

सर्व समाज के मसीहा : आंबेडकर

दलितों के नहीं सर्व समाज के मसीहा थे अंबेडकर

पिछले कुछ समय से राष्ट्रवाद और राष्ट्रनायकों के विकेन्द्रीयकरण का दौर प्रारंभ हुआ है।तकनीकि के युग के प्रारंभ होने के बाद और जातिगत राजनीति के उदय के पश्चात् चतुर राजनेताओं द्वारा नायकों का पेटेंट करते हुए इन्हें संकुचित बनाकर केवल एक उस विशेष जाति जिससे वो संबंधित हैं तक सीमित करने का प्रयास किया जा रहा है।
सोशल मीडिया पर उस नायक से संबंधित झूठी तथ्य हीन बातें तथा उस नायक की जाति को बरगलाने का क्रम ज़ोर - शोर से जारी है।ऐसे लोगों की सोच केवल यही है कि समाज को किसी भी तरह एक न होने दिया जाए और समाज को बाँटकर अपना हित साधते रहा जाए।
महानायकों को नायक तक सीमित रखने के क्रम में सबसे ज्वलंत उदाहरण यदि किसी का है तो वो हैं डॉ भीमराव आंबेडकर।आज़ादी के 65 वर्ष व्यतीत होने के बाद भी कुछ विशेष लोगों ने इस महानायक को केवल दलित नायक की छवि में बाँधकर रखा हुआ है।जबकि बाबा साहेब ने दलित ही नहीं सर्व समाज के उत्थान के लिए संघर्ष किया। 
डॉ अंबेडकर का जन्म 1891 में महू ( मध्य प्रदेश ) में हुआ था।इनके पिता का नाम रामजी सकपाल था।अंबेडकर के बचपन का नाम भीम था और सकपाल उपनाम।बाबा साहेब बचपन से ही मेधावी थे।समाज में उस समय जातिवाद हावी था इसलिए भीम राव के एक ब्राह्मण अध्यापक ने अपना अंबेडकर उपनाम भीम सकपाल को दिया ताकि यह होनहार बालक जातिवाद के कारण समाज में पिछड न जाए।इस प्रकार भीम सकपाल से बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर हो गए।
14 भाई बहनों में सबसे छोटे भीम मैट्रिक करने बाले महार जाति के पहले छात्र बने।भीम की अध्ययन में रुचि को देखते हुए इनके एक दूसरे अध्यापक कृष्णाजी केलुस्कर ने भीम को गौतम बुद्ध की जीवनी पढ़ने को दी तथा इन्हें बडौदा नरेश सियाजी राव गायकबाड के पास ले गए।
राजा साहब ने इस होनहार बालक का पूरा सहयोग किया और भीम राव को छात्रवृत्ति मिलने लगी।1912 में बंबई यूनीवर्सिटी से बीए करने बाद कोलम्बिया में उच्च शिक्षा हेतु प्रस्थान किया।अमेरिका में पढ़ाई कर रहे अंबेडकर को लाला लाजपत राय ने राजनीति में आने का आमंत्रण दिया।उस समय डॉ ने उनका आमंत्रण स्वीकार नहीं किया।अपनी पढ़ाई सम्पन्न करने के वाद डॉ आंबेडकर सैक्रेटरी ऑफ़ बडौदा स्टेट बन गए।
समाज की मुख्यधारा से कटे हुए लोगों का नेतृत्व करते हुए अंबेडकर ने समाज को एक नई दिशा दी।उन्होंने लोगों से स्वयं अपना भाग्य विधाता बनने को कहा।
3 मार्च 1933 को मुंबई के बधाई समारोह में आपने कहा था-
"आपके मेरे लिए मानपत्र के लिए धन्यवाद।यह मानपत्र मेरे कार्य और गुणों की श्रेष्ठतम बातों से परिपूर्ण है।इसका अर्थ यह है कि आप अपने जैसे सामान्य व्यक्ति का दैवीकरण कर रहे हैं किसी व्यक्ति को देवता का दर्जा देकर आप अपनी सुरक्षा और हल की जिम्मेदारी एक व्यक्ति के हाथ सौंप देते हैं।परिणाम स्वरूप आप निर्भरता की आदत पालकर अपने कर्तव्यों के प्रति तटस्थ हो जाते हैं।यदि आप ऐसी सोच का शिकार हो जाते हैं तो आपका भाग्य राष्ट्रीय धारा में बह रहे लकड़ी के टुकड़े से बढ़कर और कुछ नहीं होगा।आपके संघर्ष का परिणाम शून्य होकर रह जाएगा।"
बाबा साहेब हिन्दू धर्म की उस समय की कमियों को दूर करना चाहते थे।वे चाहते थे कि पूरा समाज चाहे वो सवर्ण हो या दलित सब मिलकर बिना भेदभाव के साथ रहें ताकि एक संगठित राष्ट्र का निर्माण हो सके।वे धर्म पर पूर्ण विश्वास रखते थे।बाबा साहेब ने कहा था जैसे मनुष्य नश्वर है उसी तरह विचार भी नश्वर हैं।जैसे एक पौधे को पानी की ज़रूरत होती है उसी तरह विचार को प्रचार - प्रसार की ज़रूरत होती है।नहीं तो दोनो मुरझाकर मर जाते हैं।
अंबेडकर धर्म द्वारा दलित और सवर्ण को जोडना चाहते थे । "गौतम बुद्ध और उनका धम्म" में वे लिखते हैं कि - "अकेले व्यक्ति को धर्म की आवश्यकता नहीं होती लेकिन जब दो व्यक्ति जुडते हैं तब परस्पर व्यवहार के लिए धर्म की आवश्यकता होती है।"
इसी प्रकार डॉ अंबेडकर ने उस समय समाज में महिलाओं की स्थिति पर गहन अध्ययन किया।उस काल में महिलाओं की स्थिति बहुत दयनीय थी।बाल विवाह , सती प्रथा,सम्पत्ति में अधिकार न मिलना , पुनर्विवाह न होना, बालिकाओं की शिक्षा पर ध्यान न देना आदि समस्याओं ने महिलाओं को समाज में सबसे दयनीय स्थिति में रखा था।डॉ अंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल के माध्यम से महिलाओं के अधिकारों को कानूनी जामा पहनाने के लिए संघर्ष किया।अंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल के मुख्य पाँच भागों विवाह,विवाह विच्छेद,विरासत, गुज़ारा भत्ता और दत्तक के माध्यम से महिलाओं के मूल अधिकारों के इन पहलुओं को कानूनी मान्यता के लिए समाज व नीति नियन्ताओं के सामने रखा।
बाबा साहेब जिस रूप में यह बिल पारित कराना चाहते थे उस रूप में नहीं हुआ।लेकिन हिन्दू स्त्री-पुरुष विवाह की आयु आदि मुद्दे आंशिक रूप से लागू हुए।और धीरे - धीरे स्वतंत्र कानून इस मुद्दे पर बनने लगे।आज महिलाओं को जो भी संवैधानिक अधिकार मिल रहे हैं उसका प्रारंभ डॉ अंबेडकर ने ही किया था।
राष्ट्र नायक आंबेडकर को समाज में समता स्थापित करने के लिए कई संघर्ष करने पड़े।इन संघर्ष और आंदोलनों का परिणाम कभी-कभी सकारात्मक नहीं रहा।1935 में कालाराम मंदिर आंदोलन में सफलता न मिल पाने के कारण बाबा साहेब ने घोषणा की कि "मैं हिन्दू नाम से जन्मा हूँ लेकिन हिन्दू के नाम से मरूँगा नहीं । " बाबा साहेब की इस घोषणा से पूरा देश स्तब्ध था।तब महात्मा गाँधी ने बाबा साहेब से वार्ता की और आंबेडकर ने गांधी जी को वचन दिया कि मैं हिन्दू धर्म छोड़ूँगा लेकिन उसका कम से कम नुकसान हो इसका ध्यान रखूँगा।14 अक्टूबर 1956 को लगभग 5 लाख अनुयायियों के साथ डॉ आंबेडकर ने बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर गांधी जी को दिए वचन को निभाया।
बाबा साहब दलितों को मुख्यधारा में लाकर सम्पूर्ण समाज को एक साथ मिलाकर एक संगठित राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे।उनका सामाजिक न्याय , सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मूल तत्व ही तो है।आज़ादी के वाद बाबा साहेब द्वारा प्रदत्त आरक्षण की आड लेकर कुटिल लोगों ने समाज को कई भागों में बाँट दिया।डॉ आंबेडकर को दलित नेता के रूप में स्थापित करने का षड़यंत्र जारी है लेकिन हिन्दू कोड बिल और मतांतरण पर दिए गए वचन को पूर्ण करके बाबा साहेब ने ये सिद्ध किया कि वह भारत के श्रेष्ठ राष्ट्रवादी तथा सर्व समाज के मसीहा थे।
अगस्त 2012 में कुछ टीवी चैनलों द्वारा कराए गए ई-मतदान में डॉ आंबेडकर को महात्मा गांधी के वाद  सर्वश्रेष्ठ भारतीय चुना जाना और हमारे देश के सभी नेताओं में सबसे ज्यादा मूर्तियाँ बाबा साहेब की लगना इस बात का प्रमाण हैं कि वह एक महानायक हैं।

दीपक तिवारी